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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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शान्ता ने पत्र तो भेजा, पर उसको उत्तर आने की कोई आशा न थी। तीन दिन बीत गए, उसका नैराश्य दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। अगर कुछ अनुकूल उत्तर न आया, तो उमानाथ अवश्य ही उसका विवाह कर देंगे, यह सोचकर शान्ता का हृदय थरथराने लगता था। वह दिन में कई बार देवी के चबूतरे पर जाती और नाना प्रकार की मनौतियां करती। कभी शिवजी के मंदिर में जाती और उनसे अपनी मनोकामना कहती। सदन एक क्षण के लिए भी उनके ध्यान से न उतरता। वह उसकी मूर्ति को हृदय-नेत्रों के सामने बैठाकर उससे कर जोड़कर कहती– प्राणनाथ, मुझे क्यों नहीं अपनाते? लोकनिंदा के भय से! हाय, मेरी जान इतनी सस्ती है कि इन दामों बिके! तुम मुझे त्याग रहे हो, आग में झोंक रहे हो, केवल इस अपराध के लिए कि मैं सुमन की बहन हूं, यही न्याय है। कहीं तुम मुझे मिल जाते, मैं तुम्हें पकड़ पाती, फिर देखती कि मुझसे कैसे भागते हो? तुम पत्थर नहीं हो कि मेरे आंसुओं से न पसीजते। तुम अपनी आंखों से एक बार मेरी दशा देख लेते, तो फिर तुमसे न रहा जाता। हां, तुमसे कदापि न रहा जाता। तुम्हारा विशाल हृदय करुणाशून्य नहीं हो सकता। क्या करूं, तुम्हें अपने चित्त की दशा कैसे दिखाऊं?

चौथे दिन प्रातःकाल पद्मसिंह का पत्र मिला। शान्ता भयभीत हो गई। उसकी प्रेमाभिलाषाएं शिथिल पड़ गईं। अपनी भावी दशा की शंकाओं ने चित्त को अशांत कर दिया।

लेकिन उमानाथ फूले नहीं समाए। बाजे का प्रबंध किया। सवारियां एकत्रित कीं, गांव-भर में निमंत्रण भेजे, मेहमानों के लिए चौपाल में फर्श आदि बिछवा दिए। गांव के लोग चकित थे, यह कैसा गौना है? विवाह तो हुआ ही नहीं, गौना कैसा? वह समझते थे कि उमानाथ ने कोई-न-कोई चाल खेली है। एक ही धूर्त है। निर्दिष्ट समय पर उमानाथ स्टेशन गए और बाजे बजवाते हुए मेहमानों को अपने घर लाए। चौपाल में उन्हें ठहराया। केवल तीन आदमी थे। पद्मसिंह, विट्ठलदास और एक नौकर।

दूसरे दिन संध्या-समय विदाई का मुहूर्त था। तीसरा पहर हो गया, किंतु उमानाथ के घर में गांव की कोई स्त्री नहीं दिखलाई देती। वह बार-बार अंदर आते हैं, तेवर बदलते हैं, दिवालों को धमकाकर कहते हैं, मैं एक-एक को देख लूंगा। जाह्नवी से बिगड़कर कहते हैं कि मैं सबकी खबर लूंगा। लेकिन वे धमकियां, जो कभी नंबरदारों को कंपायमान कर दिया करती थीं, आज किसी पर असर नहीं करती। बिरादरी अनुचित दबाव नहीं मानती। घमंडियों का सिर नीचा करने के लिए वह ऐसे ही अवसरों की ताक में रहती है।

संध्या हुई। कहारों ने पालकी द्वार पर लगा दी। जाह्नवी और शान्ता गले मिलकर खूब रोईं।

शान्ता का हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। इस घर में उसे जो-जो कष्ट उठाने पड़े थे, वह इस समय भूल गए थे। इन लोगों से फिर भेंट न होगी, इस घर के फिर दर्शन न होंगे, इनसे सदैव के लिए नाता टूटता है, यह सोचकर उसका हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। जाह्नवी का हृदय भी दया से भरा हुआ था। इस माता-पिता विहीन बालिका को हमने बहुत कष्ट दिए, यह सोचकर वह अपने आंसुओं को न रोक सकती थी। दोनों हृदयों में सच्चे, निर्मल, कोमल भावों की तरंगें उठ रही थीं।

उमानाथ घर में आए, तो शान्ता उनके पैरों से लिपट गई और विनय करती हुई कहने लगी– तुम्हीं मेरे पिता हो। अपनी बेटी को भूल न जाना। मेरी बहनों को गहने-कपड़े देना, होली और तीज में उन्हें बुलाया, पर मैं तुम्हारे दो अक्षरों के पत्र को ही अपना धन्य भाग समझूंगी। उमानाथ ने उसको संबोधित करते हुए कहा– बेटी, जैसी मेरी और दो बेटियां हैं, वैसी ही तुम भी हो। परमात्मा तुम्हें सदा सुखी रखे। यह कहकर रोने लगे।

संध्या का समय था, मुन्नी गाय घर में आई, तो शान्ता उसके गले लिपटकर रोने लगी। उसने तीन-चार वर्ष उस गाय की सेवा की थी। अब वह किसे भूसी लेकर दौड़ेगी? किसके गले में काले डोरे में कौड़ियां गूंथकर पहनाएगी? मुन्नी सिर झुकाए उसके हाथों को चाटती थी। उसका वियोग-दुख उसकी आंखों से झलक रहा था।

जाह्नवी ने शान्ता को लाकर पालकी में बैठा दिया। कहारों ने पालकी उठाई। शान्ता को ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह अथाह सागर में बही जा रही है।

गांव की स्त्रियां अपने द्वारों पर खड़ी पालकी को देखती थीं और रोती थीं।

उमानाथ स्टेशन तक पहुंचाने आए। चलते समय अपनी पगड़ी उतारकर उन्होंने पद्मसिंह के पैरो पर रख दी। पद्मसिंह ने उनको गले से लगा लिया।

जब गाड़ी चली तो पद्मसिंह ने विट्ठलदास से कहा– अब इस अभिनय का सबसे कठिन भाग आ गया।

विट्ठलदास– मैं नहीं समझा।

पद्मसिंह– क्या शान्ता से कुछ कहे-सुने बिना ही उसे आश्रम में पहुंचा दीजिएगा?

उसे पहले उसके लिए तैयार करना चाहिए।

विट्ठलदास– हां, यह आपने ठीक सोचा, तो जाकर कह दूं?

पद्मसिंह– जरा सोच तो लीजिए, क्या कहिएगा? अभी तो वह यह समझ रही है कि ससुराल जा रही हूं। वियोग के दुख में यह आशा उसे संभाले हुए है। लेकिन जब उसे हमारा कौशल ज्ञात हो जाएगा, तो उसे कितना दुख होगा? मुझे पछतावा हो रहा है कि मैंने पहले ही वे बातें क्यों न कह दीं?

विट्ठलदास– तो अब कहने में क्या बिगड़ा जाता है? मिर्जापुर में गाड़ी देर तक ठहरेगी, मैं जाकर उसे समझा दूंगा।

पद्मसिंह– मुझसे बड़ी भूल हुई।

विट्ठलदास– तो उस भूल पर पछताने से अगर काम चल जाए, तो जी भरकर पछता लीजिए।

पद्मसिंह– आपके पास पेंसिल हो तो लाइए, एक पत्र लिखकर सब समाचार प्रकट कर दूं।

विट्ठलदास– नहीं, तार दे दीजिए, यह और भी उत्तम होगा। आप विचित्र जीव हैं, सीधी-सी बात में भी इतना आगा-पीछा करने लगते हैं।

पद्मसिंह– समस्या ही ऐसी आ पड़ी है, मैं क्या करूं? एक बात मेरे ध्यान में आती है, मुगलसराय में देर तक रुकना पड़ेगा। बस, वहीं उसके पास जाकर सब वृत्तांत कह दूंगा।

विट्ठलदास– यह आप बहुत दूर की कौड़ी लाए, इसीलिए बुद्धिमानों ने कहा है कि कोई काम बिना भली-भांति सोचे नहीं करना चाहिए। आपकी बुद्धि ठिकाने पर पहुंचती है, लेकिन बहुत चक्कर खाकर। यही बात आपको पहले न सूझी।

शान्ता ड्योढ़े दरजे के जनाने कमरे में बैठी हुई थीं। वहां दो ईसाई लेडियां और बैठी थीं। वे शान्ता को देखकर अंग्रेजी में बातें करने लगीं।

‘मालूम होता है, यह कोई नवविवाहिता स्त्री है।’

‘हां, किसी ऊंचे कुल की है! ससुराल जा रही है।’

‘ऐसी रो रही है, मानों कोई ढकेले लिए जाता हो।’

‘पति की अभी तक सूरत न देखी होगी, प्रेम कैसे हो सकता है। भय से हृदय कांप रहा होगा।’

‘यह इनके यहां अत्यंत निकृष्ट रिवाज है। बेचारी कन्या एक अनजान घर में भेज दी जाती है, जहां कोई उसका अपना नहीं होता।’

‘यह सब पाशविक काल की प्रथा है, जब स्त्रियों को बलात् उठा ले जाते थे।’

‘क्यों बाईजी, (शान्ता से) ससुराल जा रही हो?’

शान्ता ने धीरे से सिर हिलाया।

‘तुम इतनी रूपवती हो, तुम्हारा पति भी तुम्हारे जोड़ का है?’

शान्ता ने गंभीरता से उत्तर दिया– पति की सुंदरता नहीं देखी जाती।

‘यदि वह काला-कलूटा हो तो?’

शान्ता ने गर्व से उत्तर दिया– हमारे लिए देवतुल्य है, चाहे कैसा ही हो।

‘अच्छा मान लो, तुम्हारे ही सामने दो मनुष्य लाए जाएं, एक रूपवान हो, दूसरा कुरूप, तो तुम किसे पसंद करोगी?’

शान्ता ने दृढ़ता से उत्तर दिया– जिसे हमारे माता-पिता पसंद करें।

शान्ता समझ रही थी कि दोनों हमारी विवाह-प्रथा पर आक्षेप कर रही हैं। थोड़ी देर के बाद उसने पूछा– मैंने सुना है, आप लोग अपना पति खुद चुन लेती हैं?

‘हां, हम इस विषय में स्वतंत्र हैं।’

‘आप अपने को मां-बाप से बुद्धिमान समझती हैं?’

‘हमारे मां-बाप क्या जान सकते हैं कि हमको उनके पसंद किए हुए पुरुषों से प्रेम होगा या नहीं?’

‘तो आप लोग विवाह में प्रेम मुख्य समझती हैं?’

‘हां, और क्या? विवाह प्रेम का बंधन है।’

‘हम विवाह को धर्म का बंधन समझती हैं। हमारा प्रेम धर्म के पीछे चलता है।’

नौ बजे गाड़ी मुगलसराय पहुंच गई। विट्ठलदास ने आकर शान्ता को उतार और दूर हटकर प्लेटफार्म पर ही कालीन बिछाकर उसे बिठा दिया। बनारस की गाड़ी खुलने में आध घंटे की देर थी।

शान्ता ने देखा कि उसके देशवासी सिर पर बड़े-बड़े गट्ठर लादे एक संकरे द्वार पर खड़े हैं और बाहर निकलने के लिए एक-दूसरे पर गिरे पड़ते हैं, एक दूसरे तंग दरवाजे पर हजारों आदमी खड़े अंदर के लिए धक्कमधक्का कर रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर एक चौड़े दरवाजे से अंग्रेज लोग छड़ी घुमाते कुत्तों को लिए आते-जाते हैं। कोई उन्हें नहीं रोकता, कोई उनसे नहीं बोलता।

इतने में पंडित पद्मसिंह उसके निकट आए बोले– शान्ता, मैं तुम्हारा धर्मपिता पद्मसिंह हूं।

शान्ता खड़ी हो गई और दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।

पद्मसिंह ने कहा– तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा कि हम लोग चुनार क्यों नहीं उतरे? इसका कारण यही है कि अभी तक मैंने भाई साहब से तुम्हारे विषय में कुछ नहीं पूछा। तुम्हारा पत्र मुझे मिला, तो मैं ऐसा घबड़ा गया कि मुझे तुम्हें बुलाना परमावश्यक जान पड़ा। भाई साहब से कुछ कहने-सुनने का अवकाश ही नहीं मिला। इसीलिए अभी कुछ दिनों तक बनारस रहना पड़ेगा। मैंने यह उचित समझा है कि तुम्हें उसी आश्रम में ठहराऊं, जहां आजकल तुम्हारी बहन सुमनबाई रहती हैं। सुमन के साथ रहने से तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट न होगा। तुमने सुमन के विषय में जो कलंकित बातें सुनी हैं, उन्हें हृदय से निकाल डालो। अब वह देवी है। उसका जीवन सर्वथा निर्दोष और उज्ज्वल हो गया है। यदि ऐसा न होता, तो मैं अपनी धर्मपुत्री को उसके साथ रखने पर कभी तैयार न होता। महीने-दो-महीने में, मैं भैया को ठीक कर लूंगा। यदि तुम्हें इस प्रबंध में कुछ आपत्ति हो, तो साफ-साफ कह दो कि कोई और प्रबंध करूं?

पद्मसिंह ने इस वाक्य को बड़ी मुश्किल से समाप्त किया। सुमन की उन्होंने जो प्रशंसा की, उस पर उन्हें स्वयं विश्वास नहीं था। मदनसिंह के संबंध में भी वे उससे बहुत अधिक कह गए, जो वह कहना न चाहते थे। उन्हें इस सरल-हृदय कन्या को इस भांति धोखा देते हुए मानसिक कष्ट होता था।

शान्ता रोते हुए पद्मसिंह के चरणों पर गिर पड़ी और लज्जा, नैराश्य तथा विषाद से भरे हुए ये शब्द उसके मुख से निकले– आपकी शरण में हूं, जो उचित समझिए, वह कीजिए।

शान्ता का हृदय बहुत हल्का हो गया। अब उसे अपने भविष्य के विषय में चिंता करने की आवश्यकता न रही, उसे कुछ दिनों के लिए अपना जीवन-मार्ग निश्चित मालूम होने लगा। वह इस समय उस मनुष्य के सदृश थी जो अपने झोंपड़े में आग लग जाने से इसलिए प्रसन्न हो कि कुछ देर के लिए वह अंधकार के भय से मुक्त हो जाएगा।

ग्यारह बजे ये तीनों प्राणी आश्रम में पहुंच गए। विट्ठलदास उतरे कि जाकर सुमनबाई को खबर दूं, पर वहां जाकर देखा, तो वह बुखार से बेसुध पड़ी थी। आश्रम की कई स्त्रियां उसकी सुश्रुषा में लगी हुई थीं। कोई पंखा झलती थी, कोई उसका सिर दबाती थी, कोई पैरों को मल रही थी। बीच-बीच में कराहने की ध्वनि सुनाई देती थी। विट्ठलदास ने घबराकर पूछा– डॉक्टर को बुलाया था? उत्तर मिला– हां, वह देखकर अभी गए हैं।

कई स्त्रियों ने शान्ता को गाड़ी से उतारा। शान्ता सुमन की चारपाई के पास खड़ी होकर बोली, ‘जीजी।’ सुमन ने आंखें न खोलीं। शान्ता मूर्तिवत् खड़ी अपनी बहन को करुण तथा सजल नेत्रों से देख रही थी। यही मेरी प्यारी बहन है, जिसके साथ मैं तीन-चार साल पहले खेलती थी। वह लंबे-लंबे काले केश कहां हैं? वह कुंदन-सा दमकता हुआ मुखचन्द्र कहां है? वह चंचल, सजीव मुस्कराती हुई आंखें कहां गई? वह कोमल, चपल गात, वह ईंगुर-सा भरा हुआ शरीर, वह अरुणवर्ण कपोल कहां लुप्त हो गए? यह सुमन है या उसका शव, अथवा उसकी निर्जीव मूर्ति? उस वर्णहीन मुख पर विरक्ति, संयम तथा आत्मत्याग की निर्मल, शांतिदायिनी ज्योति झलक रही थी। शान्ता का हृदय क्षमा और प्रेम से उमड़ उठा। उसने अन्य स्त्रियों को वहां से हट जाने का संकेत किया और तब वह रोती हुई सुमन के गले से लिपट गई और बोली– जीजी, आंखें खोलो, जी कैसा है? तुम्हारी शान्ति खड़ी है।

सुमन ने आंखें खोलीं और उन्मत्तों की भांति विस्मित नेत्रों से शान्ता की ओर देखकर बोली– कौन, शान्ति? तू हट जा, मुझे मत छू, मैं पापिन हूं, मैं अभागिन हूं, मैं भ्रष्टा हूं, तू देवी है, तू साध्वी है, मुझसे अपने को स्पर्श न होने दे। इस हृदय को वासनाओं ने, लालसाओं ने, दुष्कामनाओं ने, मलिन कर दिया है। तू अपने उज्जवल, स्वच्छ हृदय को इसके पास मत ला, यहां से भाग जा। वह मेरे सामने नरक का अग्निकुंड दहक रहा है, यम के दूत मुझे उस कुंड में झोंकने के लिए घसीटे लिए जाते हैं, तू यहां से भाग जा– यह कहते-कहते सुमन फिर से मूर्छित हो गई।

शान्ता सारी रात सुमन के पास बैठी पंखा झलती रही।

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